चिंतित पुरुष और उनका मांसल पुरुषत्व

 नवरात्रि का दौर अभी राम नवमी के साथ ही खत्म हुआ है।   उत्तराखंड की पहाड़ियां जहां मैं अब रहता हूं, यह अवसर उपवास, प्रार्थना और कीर्तन भजन के माध्यम से  मनाया गया । हमारी घाटी चारों ओर से प्रार्थनाओं की ध्वनि  में गूंज रही थी।  राम नवमी पर, भागवत कथा, कीर्तन और समूह भोज के साथ यह समाप्त हुआ। हमारे घर के ऊपर के सड़क पर अपने सबसे अच्छे कपड़े पहने महिलाएं, बच्चों के साथ भागवत की ओर जा रही हैं या वहाँ से वापस आ रही थी। शाम को  हुडका ध्वनि और देवता नाच के साथ स्थानीय देवता के लिए  जागर  या प्रार्थना का  आयोजन हो रहा था, जो देर रात तक चला। धार्मिक त्योहारों में हमारी भागीदारी कम रहती है, और इस बार पड़ोसी के लाए पूरी, छोले और हलवा खाने तक यह सीमित रहा। हमारे गांव में नए साल का स्वागत इसी तरह गरिमापूर्ण, शांतिपूर्ण और खुशहाल नौ दिवसीय उत्सव से हुआ ।

दूसरे जगहों पर राम नवमी  समारोह की खबरे  बहुत ही दर्दनाक थी।  अगली सुबह मैंने खबरों में पढ़ा कि पश्चिम बंगाल के हावड़ा, गुजरात के  वडोदरा  और  महाराष्ट्र के शंभाजीनगर में व्यापक हिंसा  हुई  दिल्ली के जहांगीरपुरी में  पुलिस प्रतिबंधों  और बैरिकेड्स के  बावजूद  जुलूस का आयोजन हुआ और उस में 1,000 से अधिक लोगों ने भाग लिया   । कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने बताया है कि भगवान राम का जन्मदिन समारोह कई वर्षों से सांप्रदायिक हिंसा का केंद्र बन गया है।  विकिपीडिया की एक  प्रविष्टि के अनुसार, इस  त्योहार में विभिन्न शहरों में हिंदू उपासकों अक्सर मुस्लिम बहूल क्षेत्रों मे जुलूस करते हैं। ऐसे जुलूस अक्सर भड़काऊ होते है और बार-बार यह हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच हिंसा को जन्म दिया है।  चूंकि भगवान राम एक राजनीतिक प्रतीक में बदल गए हैं, इसलिए उनका जन्मदिन अभी फ्लैग मार्च और तलवार के प्रदर्शन के माध्यम से सामरिक तरीके से  मनाया जा रहा  है।  देश भर के  समाचार पत्रों की  कोई भी तस्वीर इस बात की गवाही देगी।

जीवन नकल करता है कला, नकल करता है जीवन

बहुत ही आसानी से राजनीतिक नेताओं को इस तरह के धार्मिक आक्रामकता और एक संप्रदाय की दूसरे के प्रति विरोधित के लिए दोषी ठहराया जा सकता है।  लेकिन हमारे समाज में हो रहे सामाजिक आर्थिक बदलावों को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। भारत में यह अक्सर यह माना जाता है की समकालीन फिल्म, उस समय के लोगों के आकांक्षाओं को दर्शाता है। ये आकांक्षाएं अवास्तविक या अतिरंजित क्यों न हो । राज कपूर और देवानंद के समय से लेकर अमिताभ बच्चन के समय से वर्तमान के खान वर्षों तक, बॉलीवुड  ने  हमारे  सामूहिक सपनो का प्रतिनिधित्व किया है नीचे दी गई तस्वीर पिछले एक साल में दो सबसे ज्यादा लोक प्रिय फिल्मों के नायकों की छवियों के साथ अतीत के कुछ बड़े सितारों को दिखाती है। इन चित्रों से हमारे फिल्मी सितारों के मर्दानगी में अंतर बहुत स्पष्ट है!

उत्तम  कुमार, राजेश खन्ना  और कमल हासन  60, 70 और 80 के दशक के सर्वश्रेष्ठ सितारों में से थे , और हालांकि उनके यह चित्र शायद बीस साल की अवधि में फैली हुई हैं, फिर भी कई समानताएं हैं।  उनकी आखों को अगर हम देखे तो दिखेगा हालांकि वे मुस्कुरा नहीं रही हैं, उन्मे दयालुता का संकेत दिखाती हैं।  इन तस्वीरों की तुलना एनटीआर जूनियर और शाहरुख खान से करें।  वे सिर्फ बिना कमीज के ही नहीं हैं पर अपने शरीर के मांसपेशी प्रदर्शित कर रहे हैं, और उनके चेहरे गुस्से में हैं, उनकी आंखें की नजर ठंडी या क्रूर हैं।  यह सच है कि इन छवियों  को जान बुझ कर चुना गया है, लेकिन वे उन  छवियों से हैं जो पोस्टर और विज्ञापनों के माध्यम से लोकप्रिय हो गए हैं।  ऐसी छवियां जो निर्माताओं और मीडिया को पता था कि  दर्शकों को  पसंद आएगा

मैं फिल्मों में विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन मुझे बताया गया है कि हमारे फिल्मी दुनिया के नायक  उसी तरह पेश आते हैं जिस तरह से 'हम' पुरुष  खुद को देखना चाहते हैं  । इन सालों में   हमारे नायकों में बदलाव का मतलब है कि आज के लोग अब खुद को दयालु या आशावादी के रूप में नहीं देखते हैं  ,  बल्कि क्रोधित और प्रतिशोधी  चहरों से अपने आप को नजदीक पाते हैं।  इन  लाखों पुरुषों के जीवन में हुए परिवर्तनों पर विचार करना महत्वपूर्ण है  , जो अपने दैनिक जीवन की विडंबना से छुटकारा पाने के लिए सीनेमा  की  ओर झुकते हैं ऐसा नहीं है कि ये सभी पुरुष अपने जीवन में हिंसक हैं, लेकिन वे इस तरह के हिंसा को सही ठहराने में  खुश हैं।  एक तरफ वे मनोरंजन के लिए फिल्में देख रहे होते हैं,  पर उसी समय इस तरह का क्रोध और हिंसा  उनहिके जिंदगी का कोई गहरी सोच या विडम्बना को पुष्ट कर रही है

पुरुषों की बदलती वास्तविकता

भारत पिछले पचास वर्षों में बदल गया है, पिछले 30 वर्षों में और अधिक। कुल मिलाकर गरीबी, खराब स्वास्थ्य, शिक्षा की कमी, दलितों (या आधिकारिक पदानुक्रम के अनुसार अनुसूचित जातियों और जनजातियों) की दयनीय स्थिति, या महिलाओं की द्वयम दर्जा ऐसी समस्याएं हैं जिन्हें हम एक देश के रूप में काफी पीछे छोड चुके हैं।  अब हमारी आकांक्षा वैश्विक नेतृत्व है और हमारे तकनीकी कौशल विश्व स्तरीय हैं।   अगर हमारे देश ने इतनी तरक्की की है , तो क्यों लाखों लोग अभी भी चिंतित या परेशान हैं?

लाखों लोगों का जीवन भी बदल गया है।  पिछले तीस वर्षों का नाटकीय आर्थिक परिवर्तन,  तकनीकी रूप से कुशल कर्मियों के बाल बूते पर संभव हुआ है। लाखों युवा इस श्रम शक्ति का हिस्सा बन गए हैं। वे ग्रामीण  क्षेत्रों  से   बैंगलोर, पुणे, हैदराबाद, गुड़गांव, नोएडा और  यहां तक कि सिलिकॉन वैली में चले गए हैं।   भारत के कई छोटे शहर से निकले युवा अभी  वैश्विक कंपनियों के शीर्ष पर हैं लाखों लोग  आर्थिक मंदी से मध्यम वर्ग की ओर चले गए हैं। गवाह, भारत अब  गाड़ियों और फ्रिज टीवी वाशिंग मशीन जैसे उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं के लिए दुनिया के सबसे बड़े बाजारों में से एक है।  भारतीय घरेलू बाजार इतना बड़ा और मजबूत  है कि यह हमारी अर्थव्यवस्था को वैश्विक झटकों से बचा रहता है। भारत के  पुरुष न केवल इस सफलता की कहानी का हिस्सा हूं, बल्कि  इसके संचालक भी है।  

पर इन तीस वर्षों में कुछ और भी बदलाओ हुआ है। हमारे देश की आबादी भी इस बीच काफी बढ़ गई है । कई लोग सोचते हैं की यह पहले से अधिक बच्चों के जनम के कारण है। पर ऐसा नहीं है। हमारी प्रजनन दर में काफी गिरावट आई है, लेकिन  बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था और पहले अधिक बच्चे पैदा होने के कारण आज  युवाओं की संख्या अधि है।  (हमें याद रखना चाहिए कि आज के युवा कल बच्चे थे।)  नतीजतन लाखों लोगों को फायदा हुआ है, लेकिन करोड़ों लोग पीछे छूट गए हैं। रोजगार की उपलब्धता युवाओं की संख्या में वृद्धि के साथ तालमेल नहीं रख पाई  है।  आज के दिन, पहले के किसी भी समए के तुलना में सबसे अधिक बेरोजगारी दर हैं।  कृषि जमीन के बट जाने से और बढ़ती बाजार-आधारित अर्थव्यवस्था के कारण ग्रामीण कृषि जीवन अब जीवन के हर जरूरत को पूरा नहीं कर सकता है।  युवा एक ऐसे जाल में फंस गए हैं  जहां उनके पास न  कोई संसाधन है, और न ही कोई अवसर । इसी के साथ उनके पास कोई हुनर या कौशल भी अक्सर नहीं है लाखों लोग अपने घरों को छोड़ रहे हैं, उन जगहों की  तलाश   कर रहे हैं जहां कोई अनौपचारिक रोजगार के अवसर हैं।  हमने महामारी के दौरान लाखों ऐसे लोगों  को शहरों से अपने घरों की ओर सैकड़ों किलोमीटर चलते हुए जाते देखा है।  शहरों   में भीड़भाड़ है, शहरी बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है, झुग्गियों का विस्तार  हो रहा है । दूसरी ओर शहरी गरीबों को अक्सर गाली दिया जा रहा है और उनकी झोपड़ियों पर बुलडोजर चलाया जा रहा है।

लेकिन यह परेशानी युवा महिलाओं और युवा पुरुष  दोनों के साथ हो रहा है। तो पुरुष ही क्यों चिंता में हैं और असुरक्षा की भावना से पीड़ित हैं? इसके पीछे का कारण शायद यह है कि लड़कों और लड़कियों को अलग-अलग तरीकों से परवरिश की जाती है । इसी के कारण इन परिवर्तनो का प्रभाव लड़कों और लड़कियों पर अलग होता है। लड़के हक की भावना के साथ बड़े होते हैं, लड़कियां नहीं। लड़के छूट और संसाधनों ज्यादा मिलती है। कभी मांगने पर तुरंत मिलती है, तो कभी मांगने से पहले ही।  लड़कियों के साथ अक्सर ऐसा नहीं होता।  उन्हें सीमित अवसरों और संसाधनों के साथ काम करने के लिए, कम लागत पर रहने के लिए प्रशिक्षित किया जाता  है। लड़कियों  को उनकी व्यक्तिगत कठिनाइयों के बावजूद दूसरों की देखभाल, उन्हे खिलाने पिलाने की जिम्मेदारी लेना, और दूसरों की सेवा के लिए प्रशिक्षित किया जाता है


जब लड़के वयस्क हो जाते हैं, उनसे उम्मीद होती है ई वे अपने परिवारों का भरण पोषण के लिए रोजगार करने और उनकी रक्षा करने की जिम्मेदारी लेंगे ।  लेकिन पिछले कुछ सालों में घर के बाहर और अंदर की स्थिति बहुत अलग हो गई है।  वे रोजगार करने और यहां तक कि सुरक्षा करने में असमर्थ हैं। कोविड-19 के महामारी यह स्पष्ट प्रतीत हुआ है। महिलाएं अब सब की सेवा करने के लिए घर पर इंतजार नहीं कर रही हैं। लाखों महिलाएं  अब शिक्षित हैं और अपने घरों के बाहर स्वतंत्र रूप से घूम रही हैं, कमा रही हैं । कई महिलायें घर के जिम्मेदारी के साथ साथ  कमाई करने वालों की भूमिका भी निभा रही है।  घर पर पुरुषों का  जो निर्विवाद अधिकार प्राप्त था, वह अब मौजूद नहीं है। पुरुषों को जो बचपन से शिक्षा मिली है, जो घर और बाहर की भूमिकाओं के लिए उन्हे तैयार किया गया है, वह परिस्थिति अब पूरी तरह बदल गई है। इस बदलाओ से जूझने के लिय उनके पास कोई संसाधन या रास्ता नहीं है। इसी से वे चिंतित है असुरक्षित महसूस कर रहे है।   इसी चिंता और असुरक्षा तो कुछ विशेषज्ञ   ‘ओंटोलॉजिकल असुरक्षा' या ‘अपने खुद के पहचान संबंधी विडम्बना’ कहते हैं यह एक ऐसी स्थिति है जब आपको खुद नहीं पता की ‘मैं कौन हूँ?’

 'एक आदमी होने' की भावना को फिर से हासिल करना

प्रतिस्पर्धा, आक्रामकता, हिंसा और दूसरों पर जीत पुरुषों के जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है।  सफल योद्धा, उद्दंड खिलरी, विजेता टीमें, हर एक से बड़ा व्यापारी, सभी अपनी अपनी दुनिया में नायक हैं। हारा हुआ पुरुष न केवल निकम्मा है, बाल की नपुंसक या नामर्द भी मन जाता है।  जिन पुरुषों के बारे में हम बात कर रहे हैं, उनके पास अपनी आंखों में नायकों की तरह महसूस करने के लिए कुछ भी नहीं है।  वे खुद की पुरुष होने की वैधता के एक नए स्रोत की तलाश कर रहे हैं। ईस परिस्थिति में एक आसानी से पहचाने जाने वाले दुश्मन या कोई और जिसे हम आसानी से हरा सकते हैं, उसकी तलाश है।  उसी पर आक्रामकता और हिंसा करना अपने खुद की वैधता को वापस पाने के आसान रास्ता है।

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हमारे राजनीतिक नेताओं को इन जीवन मे हारे हुए,  हताश मतदाताओं को एक आसान दुश्मन बेचना बेचना चाहते है।  यद्यपि वही नेता हमारे देश की महानता का दावा करते हैं, लेकिन दूसरे अवसरों पर वे न केवल विदेशों में, बल्कि देश के  अंदर भी दुश्मनों ढूंढते रहते हैं।  मांसपेशियों से भरपूर और क्रोधित चेहरे हमारे लिए सफर नायकों के प्रतीक बन जाते हैं।  झंडे, तलवार, बंदूक और उत्तेजक नारे धार्मिक धार्मिक प्रतीक बन गए हैं । बल का प्रयोग, घृणा और हिंसा और मार पीट न्यायोचित हो गया है ।  यह भी आश्चर्य की बात नहीं है कि महिलाओं के खिलाफ विद्वेष और हिंसा भी आज बढ़ रही है क्योंकि महिलाएं भी आसानी से पहचानी जाने वाली दुश्मन बन गई हैं।

लेकिन पुरुषों की जिंदगी की कहानी का यह एकमात्र स्वरूप नहीं है, और न ही होनी चाहिए। हमारे अतीत में भी ऐसा नहीं था। मेरा उत्तराखंड में रामनवमी का अनुभव बताता है कि वर्तमान समय में भी एक पूरी तरह से अलग वास्तविकता संभव है। इसी तरह, हमारे देश में की गंगा-जमुनी तहज़ीब आज भी बरकरार है  जो नफरत, क्रोध और हिंसा के इस हमले के बावजूद जिंदा हैं।  झारखंड के 78 वर्षीय मुस्लिम व्यक्ति मंजूर खान जिन्होंने  45 वर्षों तक अपने शहर में राम नवमी जुलूस का नेतृत्व किया की कहानी पढ़ने के  बाद, मेरा विश्वास  और मजबूत हो गया कि एक अलग वास्तविकता  संभव थी,  जब मुझे राम  नवमी की शुभकामनाओं  के अवसर  पर  पाकिस्तान के सबसे प्रसिद्ध कलाकारों में से एक अब्दुर रहमान चुगताई द्वारा राम की  यह  पेंटिंग मिली  , तो मुझे एहसास हुआ कि मैं इस विश्वास में मैं अकेला नहीं था। लेकिन मुझे आश्चर्य है कि हजारों  लोग, जिन्हें कई समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता है, जो वर्तमान में अपने जीवन का मतलब ढूंढ पाते है, वे भी इस हिंसा और विद्वेष की तर्क की ओर झुक रहे हैं। मुझे आश्चर्य है कि उनकी ऑन्कोलॉजिकल असुरक्षा आत्म-परिचय की विडम्बना क्या है?



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